सफेद आलू पर संकट गहराया, BKU (चढूनी) ने दी चेतावनी: “दाम नहीं बढ़े तो सड़क पर उतरेंगे किसान”
हरियाणा में सफेद आलू की कीमत 180-480 रुपये क्विंटल तक गिरने से किसान भारी नुकसान में हैं। BKU (चढूनी) ने सरकार से सुरक्षित मूल्य 800 रुपये करने और लाल-सफेद आलू का अलग औसत तय करने की मांग की है वरना आंदोलन की चेतावनी दी। जानिए अपडेट -
- सफेद आलू किसानों पर भारी, दाम औंधे गिरे
- लाल–डायमंड आलू महंगे, मुआवजा अटका
- CM को BKU चढूनी का पत्र, राहत की मांग
- आंदोलन की चेतावनी, सरकार पर बढ़ा दबाव
हरियाणा, 28 दिसम्बर (NFLSpice News): हरियाणा में इस बार सफेद छिलके वाले आलू की पैदावार किसानों के लिए चिंता का सबब बन गई है। बाज़ार में दाम इतने गिर गए हैं कि उत्पादन लागत तक नहीं निकल पा रही। दूसरी तरफ लाल और डायमंड किस्में बेहतर दाम पा रही हैं जिससे औसत बाज़ार दर ऊँची दिखती है और सफेद आलू उगाने वाले किसानों को योजना के तहत भी पूरा मुआवजा नहीं मिल पा रहा।
सरकार के नाम चिट्ठी, दरकार राहत
BKU (चढूनी) प्रमुख गुरनाम सिंह चढूनी ने मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी को पत्र लिखकर स्थिति की गंभीरता बताई है। उनका कहना है कि सफेद आलू की कीमत फिलहाल 180 से 480 रुपये प्रति क्विंटल के बीच है, जबकि लागत इससे कहीं ज्यादा। लाल और डायमंड किस्में 500-775 रुपये प्रति क्विंटल तक बिक रही हैं, जो असमानता और बढ़ाती है।
भू-व्यवस्था का दबाव और किसान की पीड़ा
भवंतर भरपाई योजना के तहत आलू का सुरक्षित मूल्य 600 रुपये प्रति क्विंटल तय है। लेकिन औसत दर में खास किस्मों की ऊँची कीमतें जोड़ दी जाती हैं, जिसके चलते सफेद आलू उगाने वालों को योजना के मुताबिक राहत नहीं मिल रही। किसान नेताओं का आरोप है कि यह योजनागत कमी उनकी मेहनत पर चोट कर रही है।
“बादाम दाम, लेकिन सफेद आलू बदनाम”
गुरनाम सिंह ने कहा कि बैसमती की तरह विशेष किस्मों को ऊँचे दाम देना गलत नहीं लेकिन इसका असर औसत कीमत पर डालकर बाकी किसानों को नुकसान पहुँचाना अन्याय है। संगठन की मांग है कि आलू का सुरक्षित मूल्य 800 रुपये प्रति क्विंटल किया जाए और लाल व सफेद आलू के लिए अलग-अलग औसत एवं राहत दरें तय हों।
भंडारण और बीमारी से बढ़ी मुश्किलें
संघ प्रवक्ता और किसान राकेश बैन्स का कहना है कि कम दामों के अलावा फफूंद बीमारी, महंगी मजदूरी, स्टोरेज और ट्रांसपोर्टेशन लागत किसानों को दोहरी मार दे रही है। उन्होंने चेतावनी दी कि सरकार ने तुरंत कदम नहीं उठाए तो आंदोलन अपरिहार्य होगा, और इसकी जिम्मेदारी प्रशासन की होगी।
विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर मौजूदा हालात ऐसे ही रहे तो कृषि चक्र और ग्रामीण अर्थव्यवस्था दोनों पर दबाव बढ़ सकता है। किसान नई फसलों में निवेश से हिचकेंगे और बाज़ार असंतुलन बढ़ेगा। फिलहाल नज़रें सरकार की अगली कार्रवाई पर टिक गई हैं।
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