विवेक रंजन अग्निहोत्री की नई फिल्म ‘द बंगाल फाइल्स’ रिलीज हो चुकी है. ये फिल्म 1946 के कोलकाता और नोआखली दंगों की पृष्ठभूमि पर आधारित है. उनकी ‘फाइल्स’ सीरीज की तीसरी कड़ी है जो पहले ‘द ताशकंद फाइल्स’ और ‘द कश्मीर फाइल्स’ के बाद आई है. लेकिन क्या ये फिल्म दर्शकों का दिल जीत पाई? आइए जानते हैं.
कहानी का सार
फिल्म दो समयरेखाओं में चलती है. एक तरफ 1940 का दशक, जहां आजादी से पहले के हिंदू-मुस्लिम तनाव, बंटवारे की बातचीत और कोलकाता दंगे दिखाए गए हैं. दूसरी तरफ आज का समय, जहां CBI अफसर शिवा पंडित (दर्शन कुमार) एक दलित लड़की गीता मंडल की गुमशुदगी की जांच करते हैं. कहानी में सरदार हुसैनी (मुस्लिम विधायक) और भारती बनर्जी (पूर्व गांधीवादी) जैसे किरदारों के जरिए सियासी और सामाजिक मुद्दों को उठाया गया है.
फिल्म बंगाल के दंगों को बेहद हिंसक और विस्तृत तरीके से दिखाती है. कई दृश्य इतने भयावह हैं कि दर्शक सहम जाएं. मगर कहानी में गहराई की कमी और बार-बार दोहराव इसे कमजोर बनाते हैं.
क्या है खास?
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अभिनय: पल्लवी जोशी और सिमरत कौर ने अपने किरदारों में जान डाली है. मिथुन चक्रवर्ती का पागल पुलिसवाले का रोल दमदार है. नमाशी चक्रवर्ती ने खलनायक के रूप में प्रभावित किया.
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संगीत: रोहित शर्मा का बैकग्राउंड म्यूजिक कहानी को और गंभीर बनाता है.
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विषय: बंगाल के इतिहास और संस्कृति को सामने लाने की कोशिश सराहनीय है.
कमियां जो खटकती हैं
3 घंटे 25 मिनट की लंबाई फिल्म को बोझिल बनाती है. कई दृश्य अनावश्यक लगते हैं. हिंसा के दृश्य जरूरत से ज्यादा क्रूर हैं जैसे बच्चों को डराना या सिख क्रांतिकारी को चीरने का सीन. लेखन में तार्किक खामियां भी हैं जैसे माता-पिता को बिना फोन के बेटी की लोकेशन पता चलना. संवाद भारी-भरकम और कुछ किरदारों का अचानक गायब होना कहानी को कमजोर करता है. अनुपम खेर और दर्शन कुमार का अभिनय औसत रहा.
रेटिंग: 2/5
‘द बंगाल फाइल्स’ एक गंभीर और संवेदनशील विषय को उठाती है लेकिन इसकी लंबाई, अतिरिक्त हिंसा और कमजोर लेखन इसे थकाऊ बनाते हैं. अगर आप विवेक अग्निहोत्री की सिनेमाई सोच और बंगाल के इतिहास को समझना चाहते हैं, तो इसे एक बार देख सकते हैं. मगर ज्यादा उम्मीदें न रखें.
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