पराली जलाने का नया खेल: समय बदला, सैटेलाइट चकमा खा गए और NCR की हवा और जहरीली हुई
उत्तर भारत में सर्दियों के प्रदूषण को लेकर 2025 में बड़ा खुलासा हुआ है। वैज्ञानिकों ने पाया कि किसान अब पराली जलाने का समय बदल रहे हैं, जिससे सैटेलाइट निगरानी कमजोर पड़ रही है और दिल्ली-एनसीआर की हवा पहले से ज्यादा जहरीली हो रही है।
Parali Burning Time Change: उत्तर भारत में हर सर्दी के साथ दिल्ली-एनसीआर की हवा दमघोंटू हो जाती है। पंजाब, हरियाणा और आसपास के राज्यों में धान की कटाई के बाद खेतों में बची पराली को जलाना लंबे समय से इसका बड़ा कारण माना जाता रहा है। लेकिन 2025 में वैज्ञानिकों के सामने जो तस्वीर आई, उसने प्रदूषण की कहानी को एक नया मोड़ दे दिया।
अब समस्या सिर्फ पराली जलाने की नहीं, बल्कि पराली कब जलाई जा रही है, इसकी भी है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि किसान आग लगाने का समय बदल रहे हैं, जिससे सैटेलाइट आधारित निगरानी प्रणाली को चकमा मिल रहा है और प्रदूषण को नियंत्रित करना पहले से ज्यादा मुश्किल होता जा रहा है।
बदला गया समय, बदली गई रणनीति
नासा से जुड़े वायुमंडलीय वैज्ञानिक हिरेन जेठवा के अनुसार, पहले पराली जलाने की घटनाएं ज्यादातर दोपहर 1 से 2 बजे के बीच होती थीं। यही वह समय होता था जब MODIS और VIIRS जैसे पोलर-ऑर्बिटिंग सैटेलाइट उत्तर भारत के इस इलाके को स्कैन करते थे।
लेकिन अब यह पैटर्न बदल चुका है। नई घटनाएं अधिकतर शाम 4 से 6 बजे के बीच सामने आ रही हैं। इस बदलाव की पहचान दक्षिण कोरिया के जियोस्टेशनरी सैटेलाइट GEO-KOMPSAT-2A के डेटा से हुई, जो हर 10 मिनट में एक ही क्षेत्र की निगरानी करता है और छोटे समय के बदलावों को भी पकड़ लेता है।
2025 में सामने आए एक अध्ययन के मुताबिक, जहां 2020 में पराली जलाने का पीक टाइम दोपहर करीब 1:30 बजे था, वहीं 2024 तक यह खिसककर शाम 5 बजे के आसपास पहुंच गया। iForest की मल्टी-सैटेलाइट एनालिसिस ने भी इसी ट्रेंड की पुष्टि की है।
2025 में पराली जलाने की कुल तस्वीर
अगर केवल घटनाओं की संख्या देखी जाए, तो 2025 में पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने का स्तर मध्यम रहा। हिरेन जेठवा के विश्लेषण के अनुसार, आग की संख्या 2024, 2020 और 2019 से अधिक थी, लेकिन 2023, 2022 और 2021 के मुकाबले कम दर्ज की गई।
इसके बावजूद दिल्ली-एनसीआर में असर गंभीर रहा। नवंबर के दौरान कई दिनों तक AQI 400 के पार पहुंच गया, जिसके चलते स्कूल बंद करने पड़े और निर्माण गतिविधियों पर रोक लगानी पड़ी। दिसंबर में भी हालात संभले नहीं और कई इलाकों में AQI 450 से ऊपर दर्ज किया गया।
कुछ आकलनों में यह जरूर कहा गया कि कुल प्रदूषण में स्टबल बर्निंग का योगदान अपेक्षाकृत कम था, लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि शाम के समय जलाई गई आग ने धुएं को ज्यादा सघन और खतरनाक बना दिया।
शाम को जली पराली क्यों ज्यादा नुकसान करती है
विशेषज्ञों के अनुसार, शाम के समय वातावरण की स्थिति पराली के धुएं के लिए सबसे ज्यादा अनुकूल होती है। सूरज ढलने के बाद हवा की ऊंचाई कम हो जाती है और गति भी धीमी पड़ जाती है। ऐसे में धुआं ऊपर उठने के बजाय जमीन के पास ही फंस जाता है और रात भर शहरों में फैलता रहता है।
नासा के एयर क्वालिटी रिसर्चर पवन गुप्ता बताते हैं कि पीक दिनों में पराली का योगदान PM2.5 में 40 से 70 प्रतिशत तक हो सकता है। पूरे सीजन की बात करें तो यह औसतन 20 से 30 प्रतिशत रहता है। इसमें वाहन उत्सर्जन, उद्योग, घरेलू ईंधन और धूल जैसे अन्य स्रोत भी मिल जाते हैं, जो हालात को और बिगाड़ देते हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर निगरानी केवल पुराने सैटेलाइट टाइमिंग पर निर्भर रही, तो प्रदूषण नियंत्रण की रणनीति अधूरी साबित हो सकती है। बदलते पैटर्न के साथ निगरानी और नीति दोनों में बदलाव जरूरी हो गया है।
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